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तैलंग ब्राह्मण समाज भारत में पाए जाने वाले कई ब्राह्मण समुदायों में से एक है। “तैलंग” शब्द संस्कृत शब्द “तैलंगा” से आया है”।

उत्पत्ति और इतिहास

तैलंग-भट्ट-गोस्वामी समुदाय का निर्माण आन्ध्र प्रदेश में विभिन्न वर्गी ब्राह्मणों से हुआ, वेलनाडी अर्थात परदेसी ब्राह्मण जो बाहर से आये और तैलंग देश में आकर बसे। दूसरा वर्ग वेगीनाडू, जिनके निवास ग्राम जल गये वे तैलंग देश में आकर बसे। "वेगी" दग्ध होने को कहते हैं। तीसरा वर्ग वह है जिनके स्वदेशाधिपति मर जाने के कारण, अत्याचार व अनाचार के भय के कारण तैलंग देश में आकर बसे, वे मुर्कीनाडू कहलाये। उपरोक्त तीनों प्रकार के ब्राह्मण कर्म-कर्मा नाम से जाने गये, अर्थात् ये कर्म करने में कुशल थे। यही कारण है कि रक्तबीज के कारण तैलंग-भट्ट-गोस्वामी समुदाय में कर्म की प्रधानता होते हुए पूर्वज व वर्तमान पीढ़ी में अध्यवसायी कर्मियों की कमी नहीं रही। ये गर्व का विषय है कि इस जाति समुदाय ने ज्योतिष, तांत्रिक, कर्मकाण्डी, साहित्यकार, अध्यापक, प्रशासन, न्याय, कला कौशल आदि विभिन्न क्षेत्रों में नाम उजागर किया है।

"तैलंग" शब्द स्थान विशेष का परिचायक है। इस शब्द में हमारा आचार-विचार, संस्कृति-संस्कार, भाषा वेशभूषा, कर्म-कर्तव्य बोध का आभास होता है। ये कहना अनुपयुक्त नहीं होगा कि हम अब उत्तर भारतीय रंग-ढंग में ढल गये हैं, व ढलते जा रहे हैं। स्वाभाविक है कि हमारे ऊपर देश-काल-वातावरण का प्रभाव पड़ा है और पड़ता जा रहा है। भाषा व वेशभूषा को हमारा तैलंग समाज लगभग परित्याग कर चुका है। अब आचार-विचार एवं संस्कृति का परिचय यत्र-तत्र ही मिलता हैं जिसके तार भी छिन्न-भिन्न होते जा रहे हैं। जाति समुदाय को अपनी विशिष्टता दिखलाने के लिए हमें अपने मूल संस्कारों को अपनाने हेतु पूर्व प्रक्रिया को चालू रखना होगा, इसके लिए दृढ़ता व अनुशासन की हम सबको जरूरत है, परन्तु आज के बढ़ते हुए कदमों में रूढ़ि की बेड़ी डालना भी समयोचित नहीं प्रतीत होती है। भगवान बुद्ध की शिक्षा "मज्झिम निकाय" के अनुसरण में प्रशस्त मार्ग पर चलना ही श्रेयस्कर होगा।

"धर्मो विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा" (ना. उपनिषद), वेद, स्मृति, सदाचार, आत्मतुष्टि धर्म के चार लक्षण है। सामान्यरूप से धर्म दस लक्षणात्मक माना गया है - धैर्य, सन्तोष, क्षमा, दया, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, आत्मविषयिणी बुद्धि, सत्य और अक्रोध आदि। सृष्टि के प्रारम्भ में ब्राह्मण के कोई भेद नहीं थे। इसका प्रमाण श्रुति स्मृति ग्रन्थों में है। जिस समय ब्रह्मा ने अपने मुख से ब्राह्मणों की उत्पत्ति की, उस समय ब्राह्मण वर्ग का एक ही भेद था, ब्रह्म ऋषि। बाद में एक के गौड़ और द्रविण दो हुए। दोनों अलग-अलग दिशा और देशों में रहे, इससे दो भेद हो गये। बाद में इनके दस भेद हुए, और फिर दस भेद के चौरासी भेद हो गये। आगे चलकर सन्तति वृद्धि होने पर 280 ब्राह्मण भेद हुए ब्राह्मणों की उत्पत्ति बह्मादिक देवताओं से वशिष्ठ, गौतम, कण्व, वाल्मीकि आदि ऋषियों से तथा कुछ मान्धाता जैसे राजाओं से अपने कार्य व पदत्व से ब्राह्मण स्थापित किये। दस प्रकार के ब्राह्मण इस प्रकार हैं- 1. तैलंग 2. महाराष्ट्र 3. गुर्जर 4. द्रविड़ 5. कर्णाटका। ये पाँच द्रविड़ ब्राह्मण कहलाये। इनका निवास विन्ध्याचल के दक्षिण में है। विन्ध्याचल के उत्तर में 1. सारस्वत 2. कान्यकुब्ज 3. गौड़ 4 मैथिल 5. उत्कल। इनमें भी ब्राह्मणों की अनेक शाखायें व उप शाखायें होती गयी। वर्तमान में ब्राह्मण के मुख्यतः 115 वर्ग हैं।

"अथ दशभिदा ब्राह्मणा कर्णाटिकाश्च तैलंगा द्रविड़ा महाराष्ट्र काः। गुर्जराश्चेति पंचैव द्रविड़ा विन्ध्य दक्षिणे। सारस्वता: कान्यकुब्जा गौड़ा उत्कलमैथिलाः। पंचगौड़ा इति ख्याता विन्ध्यस्योत्तर वासिनः।" (ब्राह्मण उत्तर मार्तण्ड)

गौड़ ब्राह्मणों की संख्या की भांति द्राविड़ ब्राह्मणों की संख्या भी 115 बतलाई है। अलग-अलग स्थानों पर बसने के कारण अलग-अलग नामों की संज्ञा दी गयी। दक्षिण के सभी ब्राह्मण वेद-वेदांगों से परिपूर्ण स्वाध्याय, तप, हवन आदि कर्मकाण्डी, विद्वान, ज्योतिष वक्ता हुए। तैलंग ब्राह्मणों में आठ वर्ग भेद हैं:- 1. तैलंगानी 2. बेलनायटी 3. बेगुनायटी 4. मुरुकीनायटी 5. काशलनायटी 6. कर्णकामा 7. नियोग 8. ऋषि न्यानासाखी। कुछ लोग तैलंग ब्राह्मणों के मुख्यतः छः भेद करते हैं- 1. वेलनाडू 2. वेगीनाडू 3. मुर्कीनाडू 4. कर्णकर्मा 5. तैलंगाणी 6. काशलनाडू। तैलंग ब्राह्मणों में निम्न वर्गीय ब्राह्मणों की भी गणना की जाती है। 1. अरवेलु ब्राह्मण तैलंग ब्राह्मणों का यह एक गोत्र भेद है। 2. कानाराकमा ब्राह्मण यह तैलंग देश के निवासी कानाराकामा वैदिक ब्राह्मण हैं ये तैलंग कहलाते हैं। 3. आंध्र वैष्णव ब्राह्मण ये रामानुज सम्प्रदाय के तैलंग ब्राह्मण हैं। 4. कासलनाडू ब्राह्मण- ये तैलंग ब्राह्मण हैं इनका निकास ओड प्रदेशान्तर्गत कौशला नगरी से है, वहां से ये तैलंग देश आकर बसे । 5. गोस्वामी या गुसाई ब्राह्मण तैलंग ब्राह्मण हैं, इन्हें वल्लभाचार्य सम्प्रदाय की विशेष रूप से पदवी प्राप्त है। 6. मध्यगौड़ीय सम्प्रदाय के तैलंग ब्राह्मण हैं।

तैलंग ब्राह्मणों की उत्पत्ति की एक कथा है - जैमुनि देश का राजा धर्मव्रत था। ईश्वर भक्ति के प्रताप से उसे स्वेच्छा गमन की सिद्धि प्राप्त थी। इस बल से वह नित्य प्रति विभिन्न तीर्थ क्षेत्रों में जाता और दान-तर्पण-पूजा कर वापिस अपने घर आकर राज्य कार्य में लग जाता था। उस धर्मात्मा राजा का नियम था कि हर रोज काशी में जाकर गंगा स्नान कर एवं पूजा पाठ कर प्रातः होने से पूर्व ही घर वापिस आ जाता था। एक दिन राजा की पत्नी सो कर जागी तो उसने राजा को पलंग पर नहीं पाया। उसके मन में आया कि राजा दुराचारी है। राजा के वापिस आने पर रानी ने पूछा कि मुझे सोती छोड़कर आप कहां जाते हो। राजा ने उसके मन के संदेह को भांप लिया। राजा ने सत्य बतला दिया। रानी ने भी अगले दिन राजा के साथ प्रातः चलने के लिए कहा। राजा सहमत हो गया रानी भी राजा के साथ गंगा स्नान को नित्य जाने लगी। एक बार गंगा पर्व पर राजा ने काशी के ब्राह्मणों का दान आदि से सत्कार किया। घर लौटने का अवसर आते ही रानी रजस्वला हो गयी। इधर राजा को समाचार मिला कि शत्रुओं ने उसके राज्य पर चढ़ाई कर दी है। राजा पशोपेश में पड़ गया। रजस्वला पत्नी को छोड़कर वह तीन दिन तक घर वापिस नहीं जा सकता था। उसने काशी के पण्डितों को बुलवाया। उनसे राजा ने मार्गदर्शन चाहा। पण्डितों ने राजा को जाने की अनुमति दे दी। राजा प्रसन्न हुआ उसने पण्डितों को कहा कि आप लोगों पर जब भी कोई विपत्ति आये, आप मेरे राज्य में आ जायें। राजा ने अपने राज्य में वापिस आकर शत्रु से युद्ध किया और विजयी हुआ। वह धर्मानुसार राज्य करने लगा। एक समय काशी में अकाल पड़ा। काशी के ब्राह्मण जैमुनि देश में गये, जैसा कि उन्हें राजा ने आश्वासन दिया था। वहां पहुंच कर राजा ने उन पण्डितों का आदर सत्कार किया। धन दान दिया। पण्डितों के कहने पर नदी के उत्तरी तट पर उनके रहने व भोजन आदि की व्यवस्था कर दी गयी। नदी के दक्षिणी तट पर वहां के मूल निवासी ब्राह्मण रहते थे। उन्हें काशी के पण्डितों से ईर्ष्या हुई उन्हें अपना तिरस्कार मालूम पड़ा। ये बात राजा-रानी तक पहुंची। राजा काशी के ब्राह्मणों को पूज्य व महान कहता था और रानी जैमुनि वासियों को महान कहती थी। इस पर शास्त्रार्थ कराने का निश्चय किया गया।

राजा व रानी ने विचार कर एक ताम्र कलश में सर्प बंद कर दिया और सभा में आज्ञा दी कि जो यह बतलायेगा कि कलश में क्या है वही श्रेष्ठ विद्वान माना जायेगा। जैमुनि के विद्वानों ने निर्णय दिया कि इसमें सर्प है। काशी के ब्राह्मण दुविधा में पड़ गये कि वे क्या कहें, जबकि जैमुनि ब्राह्मणों ने पहले ही इसका उत्तर दे दिया। तभी भगवान विष्णु एक बालक ब्रह्मचारी के रूप में प्रकट हुए। उन्होंने पण्डितों से कहा कि इस गूढार्थ को मैं जानता हूँ। मैं आप लोगों के लाभ की बात ही रखूंगा। बालक ने उनको मर्यादा रखने के लिए कहा। बालक राजा के पास गया और बोला कि मैं काशी के पण्डितों का शिष्य हूँ, उनकी तरफ से मै उत्तर दूंगा। बालक ने कहा कि इस ताम्र कलश में स्वर्ण निर्मित कृष्ण मूर्ति है। राजा-रानी उस बालक की बात पर हंसे। बालक के आग्रह करने पर जब कलश का मुंह खोला गया तो सचमुच ही स्वर्ण की कृष्ण मूर्ति उसमें निकली तब राज्य के मूल निवासी ब्राह्मण अपनी हार मान कर सभा से चले गये। बाद में राजा ने काशी के ब्राह्मणों को ग्राम दान कर अपने राज्य में बसाया। जिस क्षेत्र में उन्हें बसाया गया वह तैलगू क्षेत्र था। अतः वहां के निवासी ब्राह्मण तैलंग कहे गये।

गोस्वामी भट्ट तैलंग समाज भारत भर में विभिन्न मतावलंबी यथा वैष्णव, शैव, शाक्त, गाणपत्य और प्रमुखतः सनातनी पुष्टिभक्त, कुछ रामानुजी तथा माध्व गौड़ीय, देवी व शिव उपासक परिवारों का समूह है जो दाक्षिणात्य परंपरानुसार अपने अपने वेदों, शाखाओं की अनुपालना करते आ रहे हैं।

अधिकांश वैष्णव परिवार हैं जो श्री कृष्ण- श्री दाऊजी के भक्त सेवक हैं और जिनकी आस्था श्रीमद्भागवत, गीता, रामायण, वेदों, उपनिषदों धार्मिक ग्रन्थों में है। हमारे तैलंग ब्राह्मण समाज में अखण्ड भूमण्डलाचार्य जगद्गुरु महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी और श्रीगुसांईजी के प्राकट्य का गौरव प्राप्त है ।

उत्तर भारतीय आन्ध्र तैलंग जातीय गोत्र प्रवर

1. भारद्वाज 2. आत्रेय 3. गौतम 4. श्रीवत्स 5. कौण्डिन्य 6. वाशिष्ठ 7. मुद्गल 8. कश्यप 9. लोहित 10. कौशिक 11. हरतस 12. बाधुलस

धर्म:

हमारे समुदाय में श्री कृष्ण भक्ति की प्रधानता है और परम आराध्य श्रीनाथ जी हैं, घर घर श्री लड्डूगोपाल की सेवा निरंतर नियमित की जाती है। पुष्टिमार्ग शुद्धाद्वैत प्रधान पीठ, श्री नाथद्वारा के प०आ०तिलकायतश्री गोस्वामी श्री १०८ श्री इन्द्रदमनजी (श्रीराकेशकुमारजी) महाराज समस्त गोस्वामी भट्ट तैलंग समाज के शीर्ष आचार्य विराजमान शोभान्वित हैं एवं अन्य आ०पुष्टि आचार्यों का संपूर्ण उत्तरदेशीय तैलंग समाज और इस धर्मार्थ सेवा समिति के प्रति सद्भावना है जिसके लिये आभारी व गौरवान्वित हैं।

त्यौहार:

हमारे समाज द्वार प्रमुख उत्सवो में चार जयन्ती - श्री रामनवमी, श्री कृष्ण जन्माष्टमी, श्री नरसिंह चतुर्दशी, वामन द्वादशी नियम से मनाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त संवत्सर, बसंत पंचमी, गंगा दशहरा, दशहरा, दीपावली, अन्नकूट, यमद्वितीया (भैया दूज), होली, शरद पूर्णिमा एवं रक्षा बंधन बड़े उत्साह के साथ मनाये जाते हैं।


चार वर्ण बनाने का हेतु यह था कि कोई किसी के कार्य में विघ्नरूप न बने और स्वकीय कार्य में हो संतुष्टि का अनुभव करे ताकि समाज का कल्याण हो सके।

चार वर्ण हैं - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।

ये सब गुणकों के आधार पर बने हैं। वेद में ब्रह्म का स्वरूप वर्णित करते समय समाज के इन चारों अंगों का वर्णन इस प्रकार किया गया है:-

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यः कृतः। उरुतदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रोऽभ्यजायत।।

इन चारों वर्णों के कर्म निम्न प्रकार कहे गये हैं :- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।

ब्राह्मण: शमोदमः तपः शौचं क्षान्ति रार्जवमेव च। ज्ञानं विज्ञानमा स्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।।

क्षत्रिय: शौर्य तेजोधृतिदाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्। दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्||

वैश्य: कृषि गोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्मस्वभावजम्।

शूद्र: परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्।

ब्राह्मण को मुख, क्षत्रिय को बाहु, वैश्य को जांघ तथा शूद्र को पैर मानकर समाज की परिकल्पना पूर्ण व्यवस्था की परिचायक है। ये हो मनुष्य क्या प्राणी शरीर के मुख्य एवं स्थिर अंग हैं। ब्राह्मण का कर्तव्य :- वेदशास्त्रों को पढ़ना, पढ़ाना, यह करना, कराना, दान देना, दान लेना, मन को इन्द्रियों को वश में रखना, पवित्र बने रहना, तप करना, संतोष रखना, क्षमा रखना, सरल, ज्ञानी, दयावान, ईश्वर में विश्वास रखना तथा सत्य वादन बताये गये हैं। क्षत्रिय का कर्तव्य :- प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, शूरवीरता, तेज रखना, धैर्यवान होना, युद्ध में निडर रहना, क्षमावान होना, विद्वान, साधु तथा ब्राह्मण का आदर सत्कार करना, मन इन्द्रिय को वश में रखना एवं न्याय करना बताये गये है। वैश्य का कर्तव्य :- कृषि करना, गायादिक पशुओं की रक्षा करना, वाणिज्य व्यापार करना तथा देशोन्नति करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, देवता, गुरु, ईश्वर की भक्ति करना, धर्म, अर्थ, काम का सदुपयोग करना, उद्योगी एवं चतुर होना कहे गये हैं। शूद्र का कर्तव्य :- परिचया अथात् सेवा करना, विनम्रता रखना, स्नानादि से शुद्ध पवित्र रहना, निष्कपटता, स्वामीभक्ति, सत्य बोलना, चोरी न करना, गाय और ब्राहमण की पूजा रक्षा करना है। धर्मकृत्य करते समय शास्त्रोक्त विधि के अनुसार अपने नामों में ब्राह्मण को "शर्मा", क्षत्रिय को "वर्मा", वैश्य को "गुप्त" एवं शूद्र को "दास" प्रयुक्त करना चाहिये।

इसके अतिरिक्त चार आश्रमों की व्यवस्था ने मनुष्य जीवन को पूर्ण एवं नियमित बनाया है। आश्रमों के नाम इस प्रकार है :- (1) ब्रह्मचर्य (2) गृहस्थ (3) वानप्रस्थ (4) संन्यास

प्रथम दो प्रवृत्ति और अन्तिम दो निवृत्ति के परिचायक है। मनुष्य की आयु को एक साँ वर्ष मानकर चारों आश्रमों का काल पच्चीस-पच्चीस वर्ष आता है। ब्रह्मचर्य में ब्रम संबंधी आचरण, गृहस्थ में गृहकार्य में स्थिति, वानप्रस्थ में वन को प्रस्थान तथा सन्यास में सभी सैन्यास को गीता में कर्म तंन्यास सांसारिकता से अलगाव ले लेना कर्तव्य बताये गये हैं। एवं ज्ञान संन्यास दो भागों में विभक्त किया गया है। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ के पश्चात् नियमानुसार लिये गये संन्यास को कर्म-संन्यास जाना जाता है यह प्रत्येक गृहस्थ को कर्तव्य है। किसी भी अवस्था में ज्ञान से होने वाले संन्यास को ज्ञान संन्यास कहा गया है। कर्म के भी 3 भाग होते हैं :- नित्य, नैमित्तिक तथा काम्य संध्यावन्दन, स्नान- ध्यान, जप होम, स्वाध्याय, देव पूजा एवं अतिथि सेवा नित्यकर्म माने गये हैं। किसी निमित्त से किये गये कर्म नैमित्तिक कर्म कहे गये हैं। जैसे सोलह संस्कार, वृद्धों का स्वागत एवं श्राद्ध तर्पण आदि । काम्यकर्म कामना से प्रेरित होकर किये हुए कर्म हैं, इनमें विभिन्न यज्ञ आते हैं जैसे पुत्रेच्छा से पुत्रेष्टि यज्ञ इ० ।

यज्ञों में पांच महायज्ञ अवश्य करणीय बताये गये हैं। (1) ब्रह्मयज्ञ अथात् वेदाध्ययन, गुरुब्राह्मण आचार्यो की सेवापूजा, (2) पितृयज्ञ अर्थात् माता, पिता, गुरु, पितरों की आज्ञा-नुसार ही जीवनयापन करना तथा कुल की कीर्ति बढ़ाना, (3) अतिथियज्ञ अर्थात् आये हुए अतिथि का यथाशक्ति स्वागत सत्कार, (4) भूतयज्ञ अर्थात् गाय, बैल, कुत्ता, मनुष्य इ प्राणियों को अन्न, जल, घास, भोजन इ० से संतुष्ट करना, (5) देवयज्ञ अर्थात् देवताओं की प्रसन्नता के अर्थ घर में प्रातः सायं हवन पाठ इ० होना।

शास्त्रानुसार प्रत्येक मनुष्य देहधारी को सोलह संस्कारों से संस्कृत करना बताया गया हैं। ये सोलह संस्कार इस प्रकार हैं- (01) गर्भाधान गर्भ रहने के समय:, (02) पुंसवन गर्भ रहने के तीसरे मास में, (03) सोमोन्नयन गर्भ के छठे या आठवें मास में गर्भगी को प्रसन्नता के हेतु, (04) जातकर्म नाल काटने से पहले जीभ पर "वेद" लिखकर गला करना, (05) नामकरण बालक का नाम रखना, (06) निष्क्रमण 1 जन्म के चौथे मास में सूर्य के दर्शन कराना।, (07) अन्नप्रासन बालक को जन्म के छठे या आठवें मास अन्न, मधु या खीर चटाना यानी पासनी, (08) चूड़ाकर्म : मुण्डन तीसरे या पांचवें वर्ष, (09) उपनयन यज्ञोपवीत अर्थात् जनेऊ धारण कराना यह संस्कार ब्राह्मण को 8 से 16 वर्ष तक, क्षत्रिय को 1 से 22 वर्ष तक तथा वैश्य को 12 से 24 वर्ष तक की आयु में किया जाता है।, (10) वेदारंभ शिक्षा दिलाना, (11) समावर्तन पूर्ण शिक्षा के पश्चात् "स्नातक" पदवी ग्रहण कर गुरु द्वारा गृहस्थाश्रम के कर्मों का उपदेश, (12) विवाह गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर सन्तानोत्पत्ति के उद्देश्य से सत्कुल को कन्या का पाणिग्रहण, (13) गार्हस्पत्य पांच महायज्ञों के अधिकार को प्राप्ति के हेतु विवाह के पश्चात्, (14) वानप्रस्थ आयु के तीसरे भाग में आराम, शक्ति और आध्यात्मिक उन्नति के लिये वन में चले जाना।, (15) संन्यास आयु के चौथे भाग में या अन्तिम भाग में शिक्षा, यज्ञोपवीत और अन्य अग्निहोत्र पात्रों का त्याग कर दण्ड धारण कर ज्ञान की खोज में निकलना, (16) अन्त्येष्टि यह संस्कार मनुष्य की मृत्यु पर उसके वंशजों द्वारा उसे जलाकर वेदोक्त विधि से किया जाता है। का उद्देश्य हमारी शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक उन्नति है। मोक्ष प्राप्ति होती है। स्त्रियों के उपनयन यज्ञोपवीत छोड़कर सभी हैं। उनके लिये पतिसेवा हो गुरुकुलवास तथा गृहकार्य हो होम तप हैं, इन सभी संस्कारों इससे मनुष्य को संत्कार किये जाते ऐसा निर्देश है।

उपरोक्त विवरण हमारे पूर्वजों द्वारा जीवन को व्यवस्थित बनाने का परिचायक है। इस मनुष्य देह की प्राप्ति सामान्य कथनानुसार अत्यन्त दुर्लभ है, एवं 84 लाख योनियों में से मनुष्य योनि की प्राप्ति एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्राप्ति है। इस जीवन के सम्यक निर्वाह के लिये, इसी कारण, ऋषि मुनियों ने अनेकों विधान बनाकर हमें सच्चा मार्गदर्शन कराया है। जिस प्रकार जीवन में काल विभाजन द्वारा सुव्यवस्था लाई गयी है उसी प्रकार इस मनुष्य जीवन के प्रत्येक दिन, मास, वर्ष की महत्ता मानकर इनके सम्यक व्यतीत होने के लक्ष्य से दिनचर्या को भी व्यवस्थित बना दिया है। बीता हुआ दिन लौट कर फिर नहीं आता अतः इस नरदेही के लिये हर दिन का विशिष्ट महत्व है। हमारे धर्मग्रन्थों में नित्यकर्म को व्यवस्था हर मनुष्य देहधारी के कल्याणार्थ ही की गयी है। इस नरदेह को अधिक वर्ष तक धारण करने का प्रयत्न भी हरेक मनुष्य को कर्तव्य है। प्रत्येक मनुष्य की आयु तुष्कर्मते क्षीण होती रहती है। हमारे शास्त्रों के अनुसार मनुष्य की औसत आयु जो होनी श्रेयस्कर है सौ वर्ष है इस जीवन को उपयोगी एवं दोघायु बनाने के लिये निम्न दिनचर्या का उल्लेख "महाभारत" में बड़े सुन्दर शब्दों में किया गया है :-

ब्रामे मुहूर्ते बुध्येत् धमार्थी चानुचिन्तयेत्। उत्थायाचम्य तिष्ठेत् पूर्वी सन्ध्या कृतांजलिः।।

ऋषयो नित्य संध्यत्वाद दीर्घमायुरवाप्नुवन्। तस्मात् तिष्ठेत् सटा पूर्वी पाचैवास्यतः।।

ब्राह्मणान् पूजयेच्चापि तथा वानराधिप। देवाश्च मे स्नातो गुरुश्चाप्यभिवादयेत्।।

मातुः पितुरगुरुणा च कार्यमेवानुपतनः। हितं चाप्यहितं चापि वानरभ।।

नास्तिक्यं वेदनिन्दां व देवतानां च कुत्सनम्। द्वेषस्तम्भोऽभिमानं च तैक्ष्ण्यं च परिवर्जयेत्।।

अक्रोधनः सत्यवादी भूतानामविहिंसकः। अनुसूयुर जिद्दमश्च शतं वर्षाणि जोदति।।

आगमानां हि सर्वेषामाचार: जेष्ठ उच्यते। आचारप्रभवो धर्मो धर्मादायुविवधते।।

अर्थात् ब्राह्म मुहूर्त में यानी भूमरे जगे और धर्म अर्थ का चिन्तन करे। शौचादिक ते 'निवृत होकर आचमनादि कुल्लादातन कर स्नान करे। तत्पश्चात् संध्या वन्दन करे । चारों दिशाओं के देवताओं को प्रणाम करे, ब्राह्मणों, गुरू, माता, पिता तथा बड़ों सभी की पूजा करे अभिवादन करे। ईश्वर में विश्वास रखे। नास्तिकता, वेदनिन्दा, देवताओं की बुराई, द्वेष, स्तंभ, अभियान और तीक्ष्णता का त्याग करें। क्रोध नहीं करे, सत्य बोले, जीवों की रक्षा करे, एवं शास्त्रों के बताए आचरण करे। आचरण से ही धर्म प्रकट होता है और धर्म से आयु बढ़ती है।

सन्ध्या त्रिकाल बताई गयी है प्रातः, मध्यान्ह, एवं सायं वेदमन्त्रों द्वारा ईश्वर की उपासना को ही संध्या कहा गया है। ईश्वरोपासना मनुष्य जीवन का सर्व- व्यापी सर्वश्रेष्ठ कर्तव्य है। इससे ही मन, वाणी और कर्म को शुद्धता संभव है।